हर्पिज एक प्रकार का पित्त विकार होता है यह दो प्रकार का होता है। 1) हर्पिज सिम्पलेक्स 2) हर्पिज जोस्टर यह रोग रक्त संचार में पित्त दोष के कारण त्वचा रोग फैलता है, यह शरीर के एक भाग में दर्द, जलनयुक्त, लाल चकत्ते, होते है इन चकत्तो मे पानी से भरे फफोंलो का झुण्ड में परिवर्तित हो जाता है, तथा यह आसानी से फट जाता है इसी अवस्था में वारिसेला जोस्टार वायरस’’ नामक संक्रमण होता है, इस अवस्था में मरीज के शरीर में जलनयुक्त तीर्ब दर्द होता है, साथ ही नाक, कान पर रेशज, खुजली, बुखार सिर दर्द, कपकपी थकान, मांस दौर्बलता, कमजोरी आदि के लक्षण होते है। डा० राव के अनुसार हर्पिज मरीजो के शरीर में कई दिनो तक तंन्त्रिका तंन्त्र मे बना रहता है, यह वाइरस शरीर में अनुकूल स्थिति पाकर पुनः सक्रिय हो जाता है। यह रोग अधिकांशता 55-60 वर्ष की आयु के व्यक्तियो में ज्यादा होता है। जब शरीर की प्रतिरंक्षा प्रणाली कमजोर होती है तो यह प्रभावित हो जाता है। हर्पिज अधिकांशता अधिक स्टेराइड का उपयोग, रेडिएशन या कीमोथेरपी, मानसिक या शारीरिक आघात के पश्चात यह रोग उत्पन्न होने की सम्भावना ज्यादा होती है। यह अधिकंश महिलाओ मे ज्यादा देखा गया है। यह रोग मे पड़ने वाला फफोला 10-15 दिनो में स्वातः ठीक हो जाता है, लेकिन यह हर्पिज रोग आंखो पर होने से आंखो की ज्योति नष्ट कर देता है यदि कान पर हो जाये तो सुनने की क्षमता कमजोर कर देता है। हर्पिज की रोकथाम हेतु वैक्सीन विकसित हो चुकी है जो यह रोग होने की क्षमता को 50 प्रतिशत कम कर देता है इसके फफोंलो को हमेशा ढक्कर रखना चाहिये, इस रोग में स्वच्छता बहुत अवश्यक होती है। घरेलू उपायः- हर्पिज की रोकथाम हेतु आहार-विहार पर ध्यान देना चाहिये, सुपाच्य भोजन ले तरल पदार्थे को सेवन, पित्तवधर्क एवं दाहकारक अन्न का परित्याग करना चाहिये। पैट साफ के लिये त्रिफला क्वाथ का सवन करना चाहिये। भोजन में मक्का, ज्वार, अंगूर, फालसा, खजूर आवला, सब्जियो में पालक, धनिय लौकी करेला, परवल आदि को सेवन करना उचित रहता है । एसी अवस्था में मरीज को तनाव से दूर रहना, आग, धूप अधिक व्यायाम से भी बचना चाहिये। अधिक जानकारी के लिए आप अपने चिकित्सक से परामर्श ले।
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